09 August 2007

रंगीन पानी

पानी इतना आम हैं
कि इसका कोई नाम नहीं,
ये ज़रूरत हैं हर किसी की
हर दिन,
पर जब मिलता हैं
कुछ रंग इसमें
तो शक्ल बदल जाती हैं,
ये बेनाम नही रहता।
जब ये अन्दर जाता हैं
तो बाहर आता हैं
ऐसा-ऐसा
जो कह नही पाते
साफ पानी पीकर।
सारी घुटन
सब जान जाते हैं।
ये रंगीन पानी
सब कह जाते हैं
मन की,
जो थी अब तक
कुछ अनकही सी...

6 comments:

अनूप शुक्ल said...

अच्छी कविता है!

Divine India said...

गहरी कविता…
रंग बदल जाता है पर क्या सच में नाम भी…।

Udan Tashtari said...

अति सुन्दर रचना, बधाई.

Udan Tashtari said...

हमारी तो टिप्पणी ही आजकल खो जाती है:

कहा था: कि बढ़िया रचना है.

Shastri JC Philip said...

कविता में (मेरे नजर में) छुपे काफी प्रतीक हैं जो जीवन का एक महत्वपूर्ण पहलू उजागर करते है. लिखते रहें, कलम सशक्त भी है, संवेदनशील भी है -- शास्त्री जे सी फिलिप

हिन्दी ही हिन्दुस्तान को एक सूत्र में पिरो सकती है
http://www.Sarathi.info

Yatish Jain said...

शुक्रिया दिव्यभजी, समीरजी, शास्त्रीजी
समीरजी आपका आशय "हमारी तो टिप्पणी ही आजकल खो जाती है" समझ मे नही आया. हम आपकी ट्रेन वाली कहनी मे अट्के हुये है.

शास्त्री जी लिखने वाले की गाडी अच्छे प्रोत्साहनैऔर मार्गादर्शन से चलती है और मे समझ्ता हू आप दोनो का कार्य करते है मेरेलिये वर्ना इस ईट के जन्गल मे सम्वेदनशील लिखने का कोइ मतलब नही.