11 June 2007

पहेली

ज़िंदगी कहते हैं तू पहेली हैं,
वक़्त की आंख मिचोली हैं।

हरेक दिन रचती हैं नये खेल,
फिर भी सुख दुःख की सहेली हैं।

रोज़ होती हैं तू परत दर परत पुरानी,
फिर भी लगती तू नयी नवेली हैं।

कितने वाकये जुडते हैं इसमें नए,
फिर भी यादों की तू हवेली हैं।

ज़िंदगी कहते हैं तू पहेली हैं...

2004

5 comments:

शैलेश भारतवासी said...

यतीश जी, आपने इस कविता में लगता है मेहनत नहीं की है। कहने का तरीका थोड़ा नया हो, आपकी अपनी शैली हो। यहाँ केवल लाइनें जोड़ी गई हैं।

Udan Tashtari said...

ज़िंदगी कहते हैं तू पहेली हैं...


--बहुत सुंदर भाव हैं, यतिश भाई.

SURJEET said...

Superb! I am impressed the way you pen down your opinion about life and described it in such a wonderful way. Quite impressive and logical. Good job Yatish.

Sajeev said...

sachmuch ye paheli hi hai... sundar

सुनीता शानू said...

हाँ ठीक ही लिखा है जिंदगी पहेली ही तो है...बात पुरानी है मगर मगर ये एक ऐसा सच है जो सार्वभौमिक है जिंदगी हमेशा से पहेली ही रही है और रहेगी...

शानू