02 August 2007

किश्तियों के वो कागज़

वो जो कान मे पडती थी
बूंदों की टपटप
और आँख खुलती थी
तो लगता था
टीन पे बूंदे नही पड रही
क़ोई नाच रहा है.
सावन ने घुँघरू बाँधे है
पावों मे,

दीवारो से जब रिसता था
वो पानी
तो महक उठता था
सारा आलम सोंधी खुशबू से
और वो कच्ची मिट्टी को
छूती थी जो बूंदे
तो खडे हो जाते थे
खरपतवार,
वो खरपतवार एसे लगते थे
जैस एक घना जंगल,
केचुए जैसे एनाकोन्डा,
चीटे-चीटी जैसे जंगली जानवर,
मन्डराते कीडेमकोडे
जैसे पंक्षी हो बड़े बड़े.

बडे होने पे
आज देखता हू
उन बूंदो को
इस महानगर मे,
शान्त सी चली आती है
और चली जाती है
नालियो मे बह,
और किश्तियों के वो कागज़
अपना दम तोड देते है
स्कूल के बस्तो मे...

6 comments:

Anonymous said...

mesimerizing blog

Shastri JC Philip said...

Rachna took away words from my mouth (keyboard) before I could say the same thing.

Manish Kumar said...

और किश्तियों के वो कागज़
अपना दम तोड देते है
स्कूल के बस्तो मे...

बहुत सही कहा आपने !

अनिल रघुराज said...

शानदार छवियां है। अच्छी कविता है। वैसे यतीश जी, जब भी मैं आपकी फोटो देखता था तो सोचता था कि मैंने आपको कहीं देखा है। फिर परिचय पढ़ा तो पता चला कि कहां देखा है। मैं एनडीटीवी इंडिया के दिल्ली ऑफिस में जनवरी 2003 से फरवरी 2005 तक था। वहीं कभी-कभी ग्राफिक्स के चक्कर में आपसे टकराना हो जाया करता था। देखिए दुनिया कितनी छोटी है। हम घूम-फिर कर फिर टकरा ही गए!

Sharma ,Amit said...

बचपन बडा अजीब है, जब होता है तव समझ नही आता और जब समझ आता है तव होता नही...

Sharma ,Amit said...

Sir aap ki leye... Aap ki is kavita ko pedh ker
http://myheartsaystomemypoems.blogspot.com/2007/07/blog-post_31.html