वो जो कान मे पडती थी
बूंदों की टपटप
और आँख खुलती थी
तो लगता था
टीन पे बूंदे नही पड रही
क़ोई नाच रहा है.
सावन ने घुँघरू बाँधे है
पावों मे,
दीवारो से जब रिसता था
वो पानी
तो महक उठता था
सारा आलम सोंधी खुशबू से
और वो कच्ची मिट्टी को
छूती थी जो बूंदे
तो खडे हो जाते थे
खरपतवार,
वो खरपतवार एसे लगते थे
जैस एक घना जंगल,
केचुए जैसे एनाकोन्डा,
चीटे-चीटी जैसे जंगली जानवर,
मन्डराते कीडेमकोडे
जैसे पंक्षी हो बड़े बड़े.
बडे होने पे
आज देखता हू
उन बूंदो को
इस महानगर मे,
शान्त सी चली आती है
और चली जाती है
नालियो मे बह,
और किश्तियों के वो कागज़
अपना दम तोड देते है
स्कूल के बस्तो मे...
6 comments:
mesimerizing blog
Rachna took away words from my mouth (keyboard) before I could say the same thing.
और किश्तियों के वो कागज़
अपना दम तोड देते है
स्कूल के बस्तो मे...
बहुत सही कहा आपने !
शानदार छवियां है। अच्छी कविता है। वैसे यतीश जी, जब भी मैं आपकी फोटो देखता था तो सोचता था कि मैंने आपको कहीं देखा है। फिर परिचय पढ़ा तो पता चला कि कहां देखा है। मैं एनडीटीवी इंडिया के दिल्ली ऑफिस में जनवरी 2003 से फरवरी 2005 तक था। वहीं कभी-कभी ग्राफिक्स के चक्कर में आपसे टकराना हो जाया करता था। देखिए दुनिया कितनी छोटी है। हम घूम-फिर कर फिर टकरा ही गए!
बचपन बडा अजीब है, जब होता है तव समझ नही आता और जब समझ आता है तव होता नही...
Sir aap ki leye... Aap ki is kavita ko pedh ker
http://myheartsaystomemypoems.blogspot.com/2007/07/blog-post_31.html
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